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Saturday, September 5, 2009

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता "सुख का दुख"...beautiful..

जिंदगी में कोई बड़ा सुख नहीं है,
इस बात का मुझे बड़ा दुख नहीं है,
क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ,
बड़े सुख आ जाएं घर में
तो कोई ऎसा कमरा नहीं है जिसमें उन्हें टिका दूं।

यह एक बात
इससे भी बड़ी दर्दनाक बात यह है कि,
बडे सुखों को देख कर
मेरे बच्चे सहम जाते हैं,
मैंने बड़ी कोशिश की है कि उन्हें
सिखा दूं कि सुख कोई डरने की चीज़ नहीं है।
मगर नहीं,
मैंने देखा है कि जब कभी
कोई बड़ा सुख उन्हें मिल गया हैं रास्ते में
बाज़ार में या किसी के घर,
तो उनकी आंखों में खुशी की झलक तो आई है,
किंतु साथ साथ डर भी आ गया है।
बल्कि कहना चाहिये
खुशी झलकी है, डर छा गया है,
उनका उठना उनका बैठना
कुछ भी स्बाभाविक नहीं रह पाता,
और मुझे इतना दुख होता है देख कर
कि मैं उन से कुछ कह नहीं पाता।

मैं उन से कहना चाहता हूं कि बेटा यह सुख हैं,
इससे डरो मत बल्कि बेफिक्री से बढ़ क्र इसे छू लो।
इस झूले के पेंग निराले हैं
बेशक इसपर झूलो,
मगर मेरे बच्चे आगे नहीं बढ़ते
खड़े खड़े ताकते हैं,
अगर कुछ सोच कर मैं उनको उसकी तरफ ढ़केलता हूं
तो चीख मार कर भागते हैं,
बड़े बड़े सुखों की इच्छा
इसीलिये मैंने जाने कब से छोड़ दी है,
कभी एक गगरी उन्हें जमा करने के लिये लाया था
अब मैंने वह फोड़ दी हैं।