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Thursday, December 29, 2016





उम्रभर  हर रिश्ते को  आज़माता रहा
ज़िन्दगी अब मुझको आज़माने लगी है।

क़ारोबार ए इश्क़ में अव्वल रहे हरदम
थक गया हूँ अब नींद भी आने लगी है।

जिनको हमने  नाक़ाबिल ए दोस्ती समझा
दुनियां उनकी दोस्ती की क़समें खाने लगी है।

बड़ी तबीयत से बनायी गयी थी इक मूरत
वक़्त से पहले ही दरार इसमें आने लगी है।

सूरज-चाँद-सितारे अब मिरे किस काम के
रौशनी आँखों की मिरी  अब  जाने लगी है।

ता-उम्र भटकते रहे जिन सहराओं में 'जाहिल'
दुनियां आजकल वहाँ चार-दिन गुज़ारने लगी है।


Saturday, December 29, 2012

वह स्तब्ध थी//







अनादि काल से..
दोनो के बीच जो रेखा थी
उसे पुरुष ने ही तो मिटाया था,
उसे अनुचरी से सहचरी बनाया था.

उसी पुरुष के लिए तो उसने देश-काल की
समकालीन परम्पराओं का प्रतिकार किया,
उसी का साथ पाकर पुरुष ने संबंधों के
नये क्षितिजों का आविष्कार किया/
वो पुरुष की अवसरवादी प्रकृति से
तो परिचित थी, फिर भी उसी की
अनुकृति को बारंबार सृजित किया,
हर पग पर हार को अंगीकार कर
हर क्षण उसको अविजित किया /

उसी पुरुष के द्वारा दोनो के बीच
एक बार पुनः सीमा रेखा खीच दिए जाने पर
वह स्तब्ध थी//